कुछ बच्चों के बचपन कहाँ होते हैं। इनका बचपन तो दुर्भाग्य के आगे घुटने टेके होते हैं। जिम्मेदारी की बोझ से दबे होते हैं। ये समय से पहले ही बडे़ होते हैं। हाथ में झाड़ू और पोछा, माजने को ढ़ेर सारे बरतन होते है। झूठन साफ करता ,मेज पोछता, जड़ा सी गलती पर गाली खा रहे होते हैं। पेट में आग भूख की , कचड़े के डब्बे में कुछ खाने का सामान ढूढ रहे होतेे हैं। झपट कर छिन लेने को , कुत्ते भी तैयार खड़े होते हैं। नाज-नखरा ,फरमाईसें कहाँ, बस एक रोटी की चाह होते हैं। आँख में आँसू लिए मासुम सा चेहरा, छुप-छुप कर ये ना जाने कितना रोते हैं। माँ बाहर काम करती है,तो घर की सारी जिम्मेदारी इनके सर होते हैं। आँखों में छोटे -छोटे सपने , मर जाती है सारी ,कहाँ पूरे होते हैं। कहाँ नशीब होती है,माँ की लोरी, उनके ऊपर छोटे भाई -बहन की जिम्मेदरी होते हैं। बचपन में ही बिना जन्म दिये माँ -पिता बन गये होते हैं। स्कूल-बस्ते कहाँ नशीब इनको , किसी खेत में मजदूरी ...