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बदनामी के दौर में भला कौन है बदनाम नहीं। 
जो बदनाम करता क्या उसे और कोई काम नहीं। 

मायूस होकर के लौटे हैं हर इक दुकान से हम, 
गम बिक रहे थे वहाँ खुशियों का कोई नाम नहीं। 

उदास जिन्दगी,उदास वक्त, उदास मौसम अपनी, 
प्यास मिटाये गर्दिशों में ऐसा कोई जाम नहीं। 

भटक रहे थे वादी-ए-खिजा में बहर-रंग-ओ-बू, 
सहर के गीत गा रहे हैं और वक्त ए शाम नहीं। 

अभी तो हमें नाम की पहचान बनाना बाकी है, 
पाँव जमीं पर ही रख पाया हैं कोई मुकाम नहीं। 

नाम भी काॅटों सा ही होगा उसका यही सोचकर, 
हथेलियों पर लिखते हैं अब भूल से भी नाम नहीं। 

नाम तो लिख दूँ उसका अपनी हर शायरी के साथ, 
फिक्र है तो उसके सर आये कोई इल्जाम नहीं। 

🌹🌹sp🌹🌹—लक्ष्मी सिंह 💓

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