मैं और मेरी परछाई

🌹🌹🌹🌹
मैं कमरे में बैठी कर रही थी अकेलेपन से लड़ाई।
सोच रही थी क्या यही है इस जीवन की सच्चाई।

सब छोड़ जाते हैं सिर्फ़ साथ रह जाती है तन्हाई।
झूठी दूनिया, झूठे रिश्ते-नाते  सब करते बेवफाई।

आज साथ सिर्फ अकेलापन, मैं और मेरी तन्हाई।
तभी कानों में मेरी एक हल्की - सी आवाज आई।

मुझे कैसे भूल गई तू,मैं तेरा मन तेरी ही हूँ परछाई।
मैं तेरे जिस्म में,तेरे वजूद में सदा ही रही हूँ समाई।

तू मन की बात कहे ना कहे मुझे सब देती है सुनाई।
चेहरे की हँसी, दर्द व दुख सब देता है मुझे दिखाई।

तेरे संग-संग चलूँ तेरे रंग में ही रंगूँ मैं हूँ तेरी परछाई।
देख धुधला-सा एक साया मैं डरी थोड़ी-सी घबराई।

तभी हाथ पकड़ वो मुझे थोड़ी रोशनी के करीब लाई।
मुझ से निकलकर साफ सामने खड़ी थी मेरी परछाई।

जाने क्यों मैं फिर कुछ हल्की -सी मन्द-मन्द मुस्कुराई।
मेरे अन्दर ना जाने कितने ही शरारती हरकतें समाई।

मैं दोनों हाथों को उठा उँगलियों को हवा में हिलाई।
मेरे साथ-साथ मेरी नकल कर रही थी मेरी परछाई।

कभी आँचल, कभी जुल्फें, कभी हाथों को लहराई।
कभी दायाँ कभी बायाँ मैंने दोनों पैरों को थिरकाई।

मेरे संग-संग नाच रही थी आज मेरी ही परछाई।
और अब मुझ से बहुत दूर हो गई थी मेरी तन्हाई।

मेरे दिल को ना जाने कितनी करतबें याद आई।
तरह-तरह जानवर, कई चिड़िया भी मैने बनाई।

कभी मछली, कभी नदी, कभी सागर की गहराई।
मेरे साथ खेल रही थी साथी बनकर मेरी परछाई।

जिन्दगी में जैसे फिर से मस्ती और आनंद आई।
मैं भूल गई फिर से सारे गम, दुनिया की रुसवाई।

जुबां मौन थी पर सन्नाटे ने जमकर शोर मचाई।
कानों मेरे बजने लगी थी मीठी-मीठी सी शहनाई।

थक गई मैं नाचते-खेलते, पर थकी नहीं परछाई।
अाँखों में नींद आने लगी, मुँह से निकली जम्हाई।

इतना थक चूकी थी मैं कि नींद बहुत गहरी आई।
बत्ती बुझाना भूली मैं तो संग में लेटी थी परछाई।

बहुत - बहुत शुक्रिया तुम्हें दूँ ओ मेरे परछाई।
सबसे दूर हूँ मगर आज तूने मेरी साथ निभाई।

मुस्कुराते हुए मुझसे सिर्फ इतना बोली मेरी परछाई।
परछाई से खेलना तुमसा यहाँ सबको कहाँ है आई।
🌹🌹🌹🌹 —लक्ष्मी सिंह 💓☺

Comments

  1. परछाई की सटीक प्रस्तुति ।
    धन्यवाद जी

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

मैं एक बूढ़ा लाचार गरीब किसान

फूल पलाश के ले आना तुम।

बाल कविता - टेडी बियर