मन में ख्यालों के







मन में ख्यालों के
बुल बुले उठते हैं।
कुछ सुलझे
कुछ अन सुलझे है

कुछ दिलों में सूल  बनकर
तो कुछ खिलते फूल बनकर

मन भी एक अजीब परिंदा है
कब कहाँ उड़ जाता है
पता ही नहीं चलता है

भटकता ना जाने क्या ढूंढता है।
जितना भी मुट्ठी में कैद करो
ये दूर कहीं  -दूर भाग  जाता है

शांत शिथिल निर्मल बस
एक शून्य में खो जाता है।
कभी तो खामोशी का
चादर ओढ़ सो जाता है।

तो कभी गुनगुनाता
कभी फुसफुसाता
मुझको मुझसे हीं
दूर ले जाता है।

क्या चाहता ? क्या मांगता ?
ना इसे पता
ना मुझे पता।

मन में  ख्यालों के
बुल बुले उठते हैं।
कुछ सुलझे
कुछ अन सुलझे हैं।

लक्षमी सिंह
नई दिल्ली

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