सुख की पहचान

काश सुख की होती पहचान। होता उसका भी एक दुकान। खुश होता फिर हर इन्सान। फिर ना होता कोई परेशान। काश होता सुख का कोई पेड़। तोड़ लाता लगाता उसका ढेर। फिर ना कोई गम में रोता ढोता। फिर खुशी से हर चेहरा मुस्कुराता। बैठे-बैठे मैं ये सब सोच रही थी। मन संग मन की पाती बाँच रही थी। कोई तो बतला दे इसका सच। दुख से कैसे जाये सब बच? अपने अंतरमन मैं टटोल रही थी। दिमाग की गठरी खुद खोल रही थी। तभी अचानक कोई सब बोल गया। मन की सारी उलझन खोल गया। कहा कि मैं हूँ तेरे ही अंदर में। तुम्हारे ही मन रूपी समंदर में। मैं हूँ तुम्हारे हर एक अहसास में। क्यों भटकते हो बाहर प्यास में। मैं हूँ बच्चों की किलकारी में। संतोष की हर एक प्याली में। दुख के बाद सुख लगता प्यारा। समझो तुम समय का ये इशारा। इन्सान ने साधन लाख जुटाया। पर सुख को खरीद ना पाया। दुख से ही सुख की कीमत है। सुख से दुख में रहती हिम्मत है। जीवन सुख दुःख का है जोड़ा। सबको मिलता है थोड़ा-थोड़ा। —लक्ष्मी सिंह