इन्सान नहीं वह दरिंदा है,




इन्सान नहीं वह दरिंदा है,
धरती आकाश जिससे शर्मिन्दा है।
मासुम को नोच कर खाता है,
इन्सान के रूप में भेड़िया है।
पति-पिता के सामने ही बेटी को,
नोचकर कैसे गिद्द ने खाया है?
नारी इज्जत लुटकर,
क्या खूब मर्द कहलाया है?
इन्सानियत पर कोई ना विश्वास रह गया,
आज जानवर से ज्यादा खतरनाक इन्सान हो गया।
कैसा यह कलयुग है आया,
हर तरफछिपा है एक दरिन्दा साया।
ये दरिनदों की बस्ती है,यहाँ चिल ,कौवे
और गिद्ध की निगाहें नोचती है।
हजारों हाथ है,इन दरिन्दों की,
कब ,कहाँ कौन लुट जाये पता नहीं?
क्या इन्सानी जंगल के भेड़िये,
खुली सड़क पर घुमता रहेगा,
नोच मासुमों को खायेगा?
हर कदम रोक राहों में,
दरिंदगी की सीमा को पार कर जायेगा।
हृदय में गुस्से की आग धधक उठती है,
दिल रूआँसा हो जाता है,आत्मा रोती है।
कहाँ छुपाकर रखे कोई अपनी बच्ची,
हर गली,नुक्कर पर एक मासुम की इज्जत लुटती।
क्यों सृष्टि ऐसे दरिंदों को है रचती?
जिसकी दरिंदगी पे सृष्टि खुद रोती।
मरती है,हर रोज ना जाने कितनी ही निर्भया,
ये अन्धा कानून है,जो न्याय नहीं दे पाया।
हे ईश्वर अब इस कलयुग में अवतरित हो आओ,
पाप का घड़ा भर गया है,
इस राक्षस ,दरिंदों का नाश कर जाओ।
—लक्ष्मी सिंह
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इस कविता की रचना मैनें अगस्त में यू पी -दिल्ली के बीच हुई घटना से विचलित हो कर 3अगस्त को ही लिखी थी।शायद आप लोगों को पसन्द आये....—लक्ष्मी सिंह
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