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Showing posts from September, 2017

जुदाई

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जुदाई, ये जुदाई सहना, मुश्किल है कन्हाई। तुझ से दूर-दूर यूँ रहना, दर्द भरी तन्हाई।। 1 नजरें जहाँ कहीं भी डालूं, तेरी ही छवि पाई। पलकें बंद करूँ या खोलूँ, झाँकी नयन समाई।। 2 पल-पल याद सताये तेरी, देख आँख भर आई। उस पर बारिश की ये बूँदें, प्रणय वेदना लाई।। 3 प्रेम का प्यासा विरह ज्वाला, तन-मन अगन लगाई। मन का पंछी हुआ बावरा, धीर कहीं ना पाई।। 4 सांझ बनी है सौतन बैरी, पपीहा हुक उठाई। राग-रागिनी मन बहकावे, विचलित मन अकुलाई।। 5 मन व्याकुल कुछ भी ना भाये, जान मेरी दुहाई। तुझे देखने को दिल तरसा, कैसे सहे जुदाई।। 6 —लक्ष्मी सिंह 

कविता कहो या.............

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कविता कहो या मेरे दिल का गुब्बार  या स्याही से बरसते दर्द का बौछार लिखती हूँ मैं भावनाओं को चुन-चुन  जो मेरे दिल को देता है सुकून।                                  -लक्ष्मी सिंह 

मेरा मन

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कुहासों , अंधेरों , प्रकाश से गुजरता मेरा मन। ......  रिश्तों से जुड़ता, टूटता मेरा मन। .......  बचपन, जवानी, बुढ़ापा को सोचता मेरा मन। .....  अनेक शब्दों का माला पिरोता मेरा मन। ......  जाने क्या-क्या लिख जाता है मेरा मन। .....        -लक्ष्मी सिंह 

आखिर तुम कब आओगे

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मेरे नयन के चांद सितारे , इस घर-आँगन के उजियारे। बुढापे के एक मात्र सहारे , घर लौट के आजा, ओ मेरे प्यारे। कितने ही वर्ष बीत गये हैं, कब आओगे तुम, राहों में बैठे हैं। आखिर तुम कब आओगे….. निगाहें पथरा-सी गई है, आँखें मेरी धुँधली-सी, इक तेरे आने की इन्तजार में, चुप टकटकी लगाये बैठे हैं। आखिर तुम कब आओगे….. मेरी ना सही, अपनी माँ की सुन, जो कई सपने सिर्फ तेरे लिए बुन, इक तेरे आने की उम्मीद में दिल में आस लगाए बैठी हैं। आखिर तुम कब आओगे….. अपने सूने आँगन में सदा ढूंढती रहती है तुम्हें। जो अपनी बाहों के झूले में झूलाया करती थी तुम्हें। वही ममता भरा आंचल तेरी राह में बिछाये बैठी हैं। आखिर तुम कब आओगे……. अपनी ममता भरी लोरी जो तुम्हें सुनाया करती थी। जो अपनी हिस्से की रोटी भी, तुम्हें खिलाया करती थी। बचपन की तेरी हर याद को, अपने दिल में सजाये बैठी हैं। आखिर तुम कब आओगे….. अँगुली पकड़ कर कभी, चलना सिखाया था तुम्हें। चलो कदम-दो-कदम साथ में तुम भी तो मेरे। वीरान-सी इस आशियाना में, तेरे कदमों की एक आहट पर ...

रिश्ते

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अब रिश्ते बस नाम के रह गये हैं, अब रिश्ते हाय-हेलो में सिमट गये हैं, ये नया जमाना है, अब तो लोग रिश्ते सिर्फ फोन पर निभाते। कौन टूट रहा है, कौन छूट रहा है, ये जानने के लिए वक्त कहाँ पाते हैं। मत करिए शिकायत रिश्तों की, वरना ये धागे भी छूट जायेगें। रिश्तों की बुनियाद में सब अपने रूठ जायेगें। मत कीजिए किसी से आस, बस करिये खुद पे विश्वास। जो होगें अपने लौट आयेगें, जो हैं पराये वो रिश्ते तोड़ जायेगें। बीच भँवर में आपको अकेले छोड़ जायेगे। लाख आवाज दो वो नहीं आयेगे, ये नये जमाने का रथ बस दौड़ रहे हैं, ये दौड़ते चले जायेगे। ये हर रिश्तों को, रौंदते चले जायेंगे। जब थक जायेगें, तब ये शायद सोचेंगे, क्या इन्होंने खो दिया, तब सोच के रोयेगे। —लक्ष्मी सिंह 

बाल अधिकार

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हम छोटे-छोटे बच्चे हैं, दे दो अधिकार सही। हमेशा बड़ों की मनमानी, हमको स्वीकार नहीं। खेलें – कूदे धूम मचाये, हम बच्चों का नारा। खुलकर बचपन को जीने दो, यह अधिकार हमारा।। हम अल्हड़, कोमल, नटखट है, फूलों-सा हैं प्यारा। गंगा-सा पावन मन मेरा, भगवन रूप हमारा।। तुम सब आपस में लड़ते हो, हम मिलकर रहते हैं। भेदभाव को भूलकर सभी, साथ में खेलते हैं।। शिक्षा विकास की प्रथम सीढ़ी, नित नया सीखने दो। खुली नभ में पंख फैलाये, मुझको उड़ जाने दो।। बेमतलब यूं रोक-टोक के, सीमा में ना बांधो। चुनने दो अपने सपने भी, जो मर्जी बनने दो।। मम्मी-पापा और गुरू जी, कान खोल कर सुन लें। मार-पीट कर हम पर अपना, उपदेश नहीं डालें।। गीली-मिट्टी के समान हैं, होते कागज कोरी। ममता-दुलार से जो चाहो, लिख दो थोड़ी-थोड़ी।। बस्ते का बोझ नहीं डालो, जी भर कर जीने दो। मासूम मुस्कान बचपन की, मुख पर खिल जाने दो।। बचपन की हर शरारतों को, मनभावन होने दो। बचपन की हर किलकारी को, मीठी-सी होने दो।। ममता – दुलार बेशुमार से, जीवन भर...

आफत की पुड़िया है मेरी गुड़िया

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आफत की पुड़िया, है मेरी गुड़िया, हरदम करती है शैतानी। बात किसी की कभी न सुनती, करती वही जो मन में ठानी। भोली-भाली नादां है ये दुनिया से बिल्कुल अनजानी। ना कुछ सोचे, ना कुछ समझे, यह करती रहती है मनमानी। खिल-खिल कर हँसती रहती है, कभी भर लाये आँखों में पानी। मीठी-मीठी मिश्री- सी है बोली, बातों में तो है सबकी ये नानी। नटखट, चुलबुल प्यारी-प्यारी, परियों जैसी है मेरी रानी। मन हर्षाती मुझे लुभाती, चाँद सी सुन्दर मेरी भवानी। तन कोमल तितली सी, मन निश्छल पावन रूहानी। हर पल नई शरारत उसकी, लगती है मनभावन सुहानी। —लक्ष्मी सिंह नई दिल्ली